Migrant Complex

by Amrit Raj and Akash Bharadwaj

A migrant subject negotiates between the province and the metropolis, while encountering the city, new technology and urban architecturehow does the migrant’s mobility, class and culture affect his subjectivity?

ग्रेटर नॉएडा का प्रसार , २०१५, सौजन्य: अमृत राज 

२०११ में बारहवीं की परीक्षा के बाद हमारे बड़े पापा बोले तुम्हारा अडमिशन दिल्ली में करवाते हैं। कोई ब्रोकर टाइप का आदमी था जो साथ आया। एसी ३ कोच में टिकट बुक हुआ। हमलोग ग़ाज़ियाबाद उतरे और बस लेकर दिल्ली आ गये। लेकिन हमें कॉलेज पहुँचने के लिये ग्रेटर नोएडा जाना था। पहली बार मेट्रो लेना हुआ। एस्कलेटर पर पैर रखने में डर लग रहा था। थोड़ा डगमगा भी रहे थे। ५-१० मिनट लगा समझने में। बोटैनिकल से जैसे आप ग्रेटर नोएडा की तरफ बढ़ेंगे, आप मेट्रो के दोनों ओर बड़ी-बड़ी इमारतें देखेंगे। आश्चर्य हुआ था देखकर! कैसे बन रहा है ये सब! हम १५-२० दिन सोचते रहे कि एक मज़दूर इतना सामान लेकर ऊपर कैसे जाता होगा। उन दिनों कॉलेज के लिफ्ट से भी डर लगता था। टेक्नोलॉजी के साथ एक बड़ा एनकाउंटर था माइग्रेशन का वो सफर- जब हम बिहार के एक छोटे कस्बे से दिल्ली जैसे एक बड़े शहर  इंजीनियर बनने आये थे।

 

दिल्ली में आने के बाद हम शहर का हिस्सा बनना चाहते थे।अपने आप को “फिट” करना चाहते थे यहाँ के माहौल में। ग्रेटर नोएडा में अंसल प्लाजा मॉल है, यह परी चौक से थोड़ी दूर पर है।हालाँकि ये मुझे पता नहीं था। मैंने एक ऑटो वाले से उस मॉल का पता पूछा। उसने उस चौक का चक्कर लगाकर मुझे थोड़ी दूर छोड़ दिया। हमको लगा हम तो यहाँ पैदल भी आ सकते थे। 

 

फिर हमें बाहर कुछ खरीदना होता, तो एक कॉम्प्लेक्स था कि कैसे बोलें। कहीं दुकान वाला ये ना समझ ले कि गाँव का है या बाहर का है। हमको लगा ऐसी हिन्दी में बात करनी चाहिये कि सामने वाले को ये ना लगे कि मैं माइग्रेंट हूँ। एक इंसिडेंट हुआ- एक दुकान में जाकर हम बोले, “बर्गर दो”।अगर हम बिहार में रहते तो बोलते, “बर्गर दीजिये”। “दो” बोले क्योंकि हमको इस शहर में शामिल होना था। उसने मुझे दो बर्गर दे दिया। हम परेशान हो गये थे। कनॉट प्लेस का भाग-दौड़ देखकर लगा कि हम तो इस शहर का हिस्सा नहीं बन पायेंगे। मॉल जाने में डर लगता था। लगता था कि मॉल में एंट्री का पैसा लगता है। वहाँ सिर्फ दिल्ली के लोग जाते हैं। 

 

करीब दस सालों से दिल्ली में रहने के बाद अब लगता है कि थोड़ा कुछ बदला है। हम शहर के गति में तो शामिल हैं। शहर में एक कस्बे से आया हुआ माइग्रेंट जो रिसर्च कर रहा है, फिल्म बना रहा है, शहर के सभी तबकों  के साथ उठ-बैठ रहा है। लेकिन इण्टरनली, एक कॉम्पलेक्सिटी भी है। वो कॉम्प्लेक्स क्या है कि हमें हिस्सा तो बनना है दिल्ली का, लेकिन एक हिचकिचाहट है। पहले लगता था हम इंजीनियरिंग कर लेंगे तो यहाँ “फिट” हो जाएँगे। फिर लगा कैब में बैठने लगेंगे या फ्लाइट में यात्रा करने लगेंगे तो यहाँ का हिस्सा बन जाएँगे। एक सेंस में लगता है कि ये क्लास की बात है, लेकिन ये शायद कल्चर की भी बात है।

दिल्ली शहर का एक दृश्य, २०१५ , सौजन्य: अमृत राज

एक बच्चे के तौर पे जो सीखा है, जो गढ़ा है, जिसे आप कल्चर कहते है, आपके साथ दिल्ली पहुँचता है। अब आप भाषा ही देख लें। दिल्ली में हिन्दी और अंग्रेजी आम बोलचाल की भाषा है। हमारी भाषाएँ कई हैं जैसे कि मैथिली, भोजपुरी और मगही। हम जब हिन्दी बोलते हैं, उसमें एक अलग तरह का टोन और ऐकसेंट, एक क्षेत्रीय स्वभाव होता है। मानिए कि दिल्ली में कोई सक्सेसफुल माइग्रेंट अपने घर भोजपुरी में बात कर रहा है। तो सामने वाला झट से बोल देगा कि “ही इस ए माइग्रेंट फ्रॉम बिहार!”

 

आप बिहार में ट्रैवल कीजिए आपको कोई बिहारी मिलेगा तो आप शायद नहीं पूछेंगे की कहाँ से हैं। आप अगर दिल्ली में ऑटो में बैठिए और आपको भाषा से मालूम होगा कि ऑटो वाला बिहार का है तो आप पूछेंगे कि कहाँ से हैं। अगर कोई मधेपुरा या मधुबनी से है, हम तुरंत बोलते हैं, हम मधुबनी से हैं। हम दिखाना चाहते हैं कि हम बहुत नज़दीक के हैं । लेकिन बिहार में शायद ऐसा नहीं होता। अगर पटना में कोई मधुबनी का हो तो आपको बहुत दूर लगता है। लेकिन जब आप माइग्रेंट हैं, दिल्ली जैसे एक बड़े शहर में हैं, ये दो जगहें पास लगती हैं। अगर दिल्ली में कोई बोले की बिहार का है तो अपना लगता है। लेकिन हम बिहार में क्या पले-बढ़े हैं , हम बिहार के एक डिस्ट्रिक्ट से हैं। लेकिन दिल्ली में बिहार का एक डिस्ट्रिक्ट जहाँ हम कभी गये भी नहीं हैं, वो भी पास लगता है, एक शहर में जहाँ हम दोनों माइग्रेंट्स हैं।

 

माइग्रेशन अपने साथ एक नास्टैल्जिया और फैंटसी भी लाता है। जहाँ आधुनिक बनने के लिए अपने अतीत के घर को याद रखना ज़रूरी है। मौजूदा जीवन के अलगाववाद में शायद यह स्वभाव एक स्टेबेलिटी भी देता है। अब देखिए ना, बिहारी आइडेंटिटी एक ब्रांड का रुख़  भी अख्तियार कर रही है। दिल्ली और पटना जैसे शहरों में आपको कई ऐसे मॉडर्न रेस्तराँ मिल जाएँगे जहां आप “बिहारी क्यूजिन्स” का सेवन कर सकते हैं। या कोई कपड़ों का ब्रांड मिल जाएगा। जो मधुबनी पेंटिंग बहुत हाल तक पेपर पर होता था, अब उसके मोटिफ़्स आप अपने कपड़ों पर लेबल की तरह पहन सकते हैं।लेकिन वो कौन हैं जो लेबल बनाते हैं, और वे, जो उसे पहनते हैं?

 

इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ पॉपुलेशन स्टडीज़ के एक रिपोर्ट के अनुसार क़रीब ५०% बिहारी हाउसहोल्ड्स पर माइग्रेशन का प्रभाव है। इनमें से क़रीब ८०% लोग भूमिहीन हैं या इनके पास एक एकड़ से कम की ज़मीन है। क़रीब ९०% माइग्रेंट्स प्रायवेट फैक्ट्री में  कैजुअल वर्कस के तौर पर काम करते हैं। क्षेत्रिय समझ में कैजुअल वर्कर्स जो कंस्ट्रक्शंस में काम करते हैं या किसी ढाबे पे चाय सर्व करते हैं, और मिडल क्लास-प्रोफेशनल बिहारी माइग्रेंट क्या एक जैसे ही हैं? वो एक हद तक कल्चर तो शेयर कर सकते हैं, लेकिन क्या उनमें वर्गीय अंतर नहीं है?

शहर और गाँव के बीच, मुजफ्फरपुर, बिहार २०१५, सौजन्य: अमृत राज

इस अंतर का एक स्वरूप २०२० में कोविड महामारी के दौरान नजर आया था जब लाखों की संख्या में कैजुअल माइग्रेंट् वर्कर्स दिल्ली से बिहार की ओर रवाना हुए थे। लॉकडाउन के दौरान उस बदहाल परिस्थिति में, वे अपने घर जाना चाहते थे। कइयों के पास दिल्ली में ना रहने की व्यवस्था थी ना खाने-पीने का संसाधन। देश की मीडिया आश्चर्य में थी। वो माइग्रेंट्स जो बड़े शहरों को अपने कल-पुर्ज़े के सहारे खड़ा करते हैं, महामारी के दौरान सड़कों पर एक क़तार में दिखे। उनका होना शायद पहली बार मीडिया में इतने एकत्रित तरीक़े से दिख रहा था।

 

लेकिन ऐसा एकत्रित चित्र किसी त्रासदी के दौरान ही क्यों दिख रहा था? उस स्थिति में मिडल- क्लास बिहारी माइग्रेंट्स की भूमिका क्या थी? एक ऐसा क्लास, जो सड़क पर चलने वाले उन लोगों से बिलकुल अलग, ब्यूरोक्रेसी, मीडिया और अकादमियों में सक्रिय है। ये क्लास बिहार के नास्टैल्जिया को लेकर किताबें लिखता है। बिहारी आइडेंटिटी को एक ब्रांड के तौर पे प्रमोट और कंज्यूम करना भी इसे पता है। लेकिन अजाज अशरफ़ के एक लेख के अनुसार, कोविड जैसी त्रासदी में बिहारी माइग्रेंट वर्कर्स के लिये यह क्लास अनभिज्ञ था। बहुत ही कम ऐसे संगठन या नेटवर्क्स थे जो माइग्रेंट वर्कर्स की मदद के लिए सामने आये। क्या कारण हैं? क्या बिहार उन्हें सिर्फ़ “बंबई आम” और “गर्मी की छुट्टी” याद दिलाता है?

 

माइग्रेंट कॉम्प्लेक्स दरअसल अंतर और विरोधाभाष पर बनी दुनिया को परिदर्शित करता है। इसकी संरचना और इसका प्रभाव जितना निजी है, उतना ही सामाजिक और राजनैतिक भी। यहाँ जितना आप देख रहे होते हैं, उतना ही आपको भी देखा जा रहा होता है।

 

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References:

About the author

Amrit Raj is a PhD scholar in Cinema Studies, School of Arts and Aesthetics, Jawaharlal Nehru University, New Delhi. He has been working as a video editor and cinematographer for the past 8 years. He is also a guest faculty of the Film Studies master’s programme at Ambedkar University, New Delhi. 

 

He is on Instagram: @amrit_jnu

 

Akash Bharadwaj is a doctoral candidate of the Department of History and Archaeology at Shiv Nadar University. His research interests include histories of museums, collections and exhibitionary practices to understand how they contribute to the making of a region, nation and the world.

 

He is on Instagram: @akash.bharadwaj2